रविवार, 31 अक्तूबर 2021

मानसिक दासता से मुक्ति का प्रश्न

अग्रेजों की अधीनता से हम 1947 में मुक्त हो गए, जिसको अगले वर्ष साढ़े सात दशक पूरे होने वाले हैं। इस अवसर पर देश अपनी स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है। लेकिन स्वतंत्रता के इस लंबे कालखण्ड के बीतने के बाद भी कभी अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व तो कभी अंग्रेजी संस्कृति के अंधानुकरण के रूप में यह प्रश्न हमारे समक्ष उपस्थित हो जाता है कि अंग्रेजी हुकुमत की भौतिक दासता से मुक्ति के इतने वर्ष बाद भी क्या हम उनके द्वारा थोपी गई मानसिक दासता से मुक्त नहीं हो पाए हैं ? हाल ही में हुई एक घटना ने इस प्रश्न को पुनः प्रासंगिक कर दिया है।

दरअसल देश के महान सपूत शहीद उधम सिंह पर ‘सरदार उधम’ नाम से एक फिल्म आई है। इसमें उधम सिंह के जीवन तथा जलियांवाला बाग़ नरसंहार के अपराधी पंजाब के तत्कालीन गवर्नर जनरल माइकल ओ डायर को गोली मारकर बदला लेने की पूरी घटना को दिखाया गया है। अमेज़न प्राइम पर प्रसारित इस फिल्म को दर्शकों और समीक्षकों दोनों की तरफ से बहुत अच्छा प्रतिसाद प्राप्त हुआ है। फिल्म को मिल रही सराहना का अनुमान इसको आईएमडीबी पर मिली 9.1 की उम्दा रेटिंग से भी लगाया जा सकता है। फिल्म फेडरेशन ऑफ़ इंडिया द्वारा इस फिल्म को ऑस्कर में भेजने के लिए शार्टलिस्ट की गई भारतीय फिल्मों में भी शामिल किया गया था, लेकिन कुछ समय बाद इसे बाहर कर दिया गया। यहाँ तक भी गनीमत थी, लेकिन इसे ऑस्कर में न भेजे जाने का जो कारण बताया गया है, वो सम्बंधित ज्यूरी की मानसिकता पर गहरे सवाल खड़े करता है।

पाञ्चजन्य में प्रकाशित
ख़बरों की मानें तो ज्यूरी द्वारा कहा गया है कि, ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक गुमनाम नायक पर एक भव्य फिल्म बनाने का यह एक ईमानदार प्रयास है। लेकिन इस प्रक्रिया में, यह फिर से अंग्रेजों के प्रति हमारी नफरत को प्रदर्शित करता है। वैश्वीकरण के इस युग में, इस नफरत को फिर इस तरह से दिखाना उचित नहीं है।’ ज्यूरी द्वारा यह कारण सामने आने के बाद से ही सोशल मीडिया पर इसका विरोध किया जा रहा है।

इसमें कोई संशय नहीं कि किसी फिल्म को ऑस्कर में भेजना न भेजना, फिल्म फेडरेशन ऑफ़ इण्डिया के अधिकार का विषय है, लेकिन सरदार उधम सिंह पर बनी फिल्म को ऑस्कर में न भेजने के लिए अंग्रेजों से नफरत जो तर्क दिया गया है, वह न केवल अमान्य है, अपितु ज्यूरी सदस्यों की मानसिकता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। ज्यूरी के तर्क के हिसाब से चलें तब तो भारत को अपने स्वाधीनता आंदोलन के पूरे इतिहास को खत्म देना चाहिए ताकि वैश्वीकरण के इस युग में अंग्रेजों के प्रति नफरत से बचा जा सके। अंग्रेजों ने भारत में दो सदी से ज्यादा समय तक शोषण और दमन का जो कुचक्र चलाया है, उसे कैसे भुलाया जा सकता है ? जलियांवाला बाग़ के नरसंहार को क्या सिर्फ इसलिए भुला दिया जाए कि वैश्वीकरण के इस युग में इससे ब्रिटेन के प्रति हमारी नफरत प्रकट होती है ? क्या इस नरसंहार के मुख्य अपराधी डायर को ब्रिटेन तक जाकर मारने वाले और फांसी चढ़ने वाले सरदार उधम सिंह के बलिदान को इसलिए भुला दिया जाए क्योंकि इससे अंग्रेजों के प्रति नफरत प्रकट हो सकती है ?

इतिहास को सच्चाई के साथ सामने रख देना, नफरत दर्शाना नहीं होता। ब्रिटेन ने इतिहास में जो किया है, वो उससे पीछा नहीं छुड़ा सकता। इतिहास के उसके अपराधों का शायद यही दंड है कि उसे इनके जिक्र के बीच ही कभी उसका उपनिवेश रहे देशों के साथ सहयोग करते हुए बराबरी का सम्बन्ध लेकर चलना है। ब्रिटेन का यह भी दंड है कि जिस गांधी ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उसका जमकर विरोध किया और जिन्हें वह बारबार कारावास में डालता रहा, आज उन्हीं गांधी की प्रतिमा ब्रिटिश संसद के सामने लगी है जिसका अनावरण करने वालो में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी शामिल थे। कहने का आशय यह है कि वैश्वीकरण के इस दौर में इतिहास के अपने अपराधों को स्वीकारना व उनका प्रायश्चित करना ब्रिटेन की विवशता है। इसके लिए भारत या भारत की ही तरह पराधीन रहे अन्य देशों को ‘अंग्रेजों से नफरत’ प्रदर्शित करने से बचने के नाम पर अपना इतिहास भुलाने की कोई आवश्यकता नहीं है।   

दूसरी चीज कि यदि फिल्म फेडरेशन ऑफ़ इण्डिया की ज्यूरी सदस्यों के ‘अंग्रेजों से नफरत’ के तर्क से चलें तब तो रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ को कोई ऑस्कर नहीं मिलना चाहिए था, क्योंकि इस फिल्म में भी ब्रिटिश हुकूमत से भारतीयों के संघर्ष का ही चित्रण हुआ था। अंग्रेजी शासन के दमन व शोषण को भी इस फिल्म में दिखाया ही गया था, लेकिन इस फिल्म ने आधा दर्जन से अधिक ऑस्कर अवार्ड अपने नाम किए। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘द पेट्रियट’ भी, जिसमें ब्रिटेन का जमकर विरोध किया गया था, ऑस्कर की तीन श्रेणियों में नामित हुई थी। भारत से आमिर खान की फिल्म ‘लगान’ भी ऑस्कर में नामित की गई थी। कहने का आशय यह है कि अंग्रेजों का विरोध होने से कोई फिल्म ऑस्कर में भेजे जाने के लिए अयोग्य नहीं हो जाती। अतः यह पूरी तरह से बेबुनियाद तर्क है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘सरदार उधम’ ऑस्कर में भेजे जाने लायक फिल्म थी, लेकिन यदि उसे नहीं भेजा गया तो सम्बंधित ज्यूरी को इसके लिए कुछ उचित कारण बताने चाहिए थे। ‘अंग्रेजों से नफरत’ का यह तर्क न केवल अस्वीकार्य है, अपितु ज्यूरी की मानसिक दासता को ही दिखाता है। स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहे देश में ऐसी मानसिकताओं के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।

शनिवार, 14 नवंबर 2020

जेएनयू में नए युग का आगाज

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

गत 12 नवम्बर की तारीख दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के लिए ऐतिहासिक रही। इस दिन वामपंथी विचारधारा की नर्सरी माने जाने वाले इस विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्यम से स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण किया। निश्चित रूप से जेएनयू देश का एक अत्यंत प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान है, लेकिन स्थापना के समय से ही इसकी वैचारिक पहचान मार्क्सवादी विचारधारा पर आधारित रही है। संस्थान की छात्र राजनीति पर वामपंथी छात्र संगठनों का वर्चस्व रहा है। अतः आज जब इस विश्वविद्यालय में देश की सांस्कृतिक पहचान व भारतीयता की भावना से विश्व को परिचित कराने वाले महान राष्ट्रवादी चिंतक स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा की स्थापना हुई है, तो इससे एक उम्मीद जगती है कि अब यहाँ आयातित वामपंथी विचारधारा का वर्चस्व कम होगा तथा भारतीयता के विचारों को प्रोत्साहन मिलेगा।

स्वामीजी की प्रतिमा का अनावरण करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में कई महत्वपूर्ण बातें कही। प्रधानमंत्री के वक्तव्य की सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि राष्ट्र के विरोध में रहने वाली कोई भी विचारधारा स्वीकार्य नहीं हो सकती। इस कथन के माध्यम से कहीं न कहीं प्रधानमंत्री ने बिना नाम लिए इशारों-इशारों में वामपंथी विचारधारा के छात्र संगठनों व अनुयायियों को ही नसीहत देने का काम किया है। दरअसल इस विचारधारा के अनुयायी जेएनयू में अनेक बार ऐसी-ऐसी चीजों के लिए चर्चा में आए हैं, जो राष्ट्र के विरुद्ध रही हैं। फिर चाहें नक्सली हमले में शहीद हुए जवानों की मृत्यु पर जश्न मनाना हो या आतंकवादी अफज़ल गुरु की बरसी पर कार्यक्रम आयोजित कर देशविरोधी नारे लगाना हो अथवा नवरात्र में महिषासुर शहादत दिवस मनाना हो। इस तरह के अनेक आपत्तिजनक कृत्य इस संस्थान में वामपंथी छात्र संगठनों द्वारा न केवल किए जाते रहे हैं, बल्कि उल-जुलूल दलीलें देकर उन्हें सही ठहराने की कोशिश भी की जाती रही है। यहाँ तक कि स्वामी विवेकानंद की मूर्ति के इस अनावरण पर भी वामपंथी छात्र संगठनों ने सवाल उठाया है और इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया है।

दरअसल जेएनयू को सरकार से भारी सब्सिडी मिलती रही है, जिस कारण यहाँ रहने-खाने और पढ़ने का खर्च अपेक्षाकृत रूप से काफी कम है। इसके हॉस्टल के कमरों का किराया लम्बे समय से दस और बीस रूपये था तथा अन्य खर्च भी कम थे, जिसमें गत वर्ष वृद्धि की गयी तो छात्रों ने बवाल मचा दिया था। खैर तब किसी तरह ये मामला सुलझा था। लेकिन आज सवाल ये है कि देश के करदाताओं के पैसे से मिली सब्सिडी पर जेएनयू में नाममात्र के खर्च पर पढ़ने वाले ये छात्र, वामपंथी विचारधारा के प्रभाव में आकर, आखिर कैसे देश के ही खिलाफ बातें करने लगते हैं ? प्रधानमंत्री द्वारा अपने उक्त कथन में विचारधारा के इन्हीं अनुयायियों की तरफ इशारा किया है।

इसके अलावा प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भरता को लेकर भी महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि आत्मनिर्भर भारत का अर्थ केवल संसाधनों की ही नहीं, बल्कि सोच और संस्कारों की आत्मनिर्भरता भी है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री स्वामी विवेकानंद से जुड़ा बड़ा रोचक प्रसंग भी सुनाया कि विदेश में एकबार स्वामी विवेकानंद से किसीने पूछा कि आप ऐसे कपड़े क्यों नहीं पहनते जिससे जेंटलमैन लगें। इसपर स्वामीजी ने बड़ी विनम्रता से कहा कि आपके कल्चर में एक टेलर जेंटलमैन बनाता है, लेकिन हमारे कल्चर में चरित्र तय करता है कि कौन जेंटलमैन है। कहने की आवश्यकता नहीं कि स्वामी विवेकानंद का ये कथन भारतीय संस्कृति की तेजस्विता और आत्मनिर्भरता को ही दर्शाता है। वास्तव में, आज जब देश का युवा, विशेषकर शहरी युवा वर्ग, पश्चिमी संस्कृति के आकर्षण में डूबता जा रहा है और इसके कई दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं, तब भारत की इस सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता पर बात करना और इससे युवाओं को परिचित कराना बेहद जरूरी हो जाता है। प्रधानमंत्री का ‘सोच और संस्कारों की आत्मनिर्भरता’ का कथन मुख्यतः युवा वर्ग के प्रति ही है। देश का युवा सही अर्थों में तब ‘ब्रांड इंडिया’ का ब्रांड एम्बेसडर  बन पाएगा जब वो अपने देश की सांस्कृतिक विशिष्टता को समझ व ग्रहण कर लेगा। क्योंकि, भारत की पहचान उसकी सनातन संस्कृति से ही है, अतः बिना इसको अपनाए ‘ब्रांड इंडिया’ की वैश्विक प्रतिष्ठा नहीं हो सकती।

दैनिक जागरण आई-नेक्स्ट
अपने वक्तव्य में स्वामी विवेकानंद से जुड़े एक और महत्वपूर्ण प्रसंग की चर्चा करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने बताया कि एक बार स्वामीजी से किसीने कहा कि संतों को केवल अपने देश की नहीं, पूरे विश्व की चिंता करनी चाहिए. इसपर स्वामीजी ने बड़ी सहजता से यह सुन्दर उत्तर दिया कि जो अपनी माँ की पीड़ा को नहीं समझ सकता वो अन्य किसीकी पीड़ा को कैसे समझेगा. इस कथन के माध्यम से उन्होंने राष्ट्र को ‘माँ’ मानने वाली सनातन भारतीय संस्कृति का ही परिचय दिया था. आज की पीढ़ी में अपने राष्ट्र के प्रति आत्मगौरव का ऐसा ही भाव होना चाहिए. दरअसल स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़े अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनके द्वारा न केवल उनके व्यक्तित्व और विचारों को समझा जा सकता है, बल्कि प्रेरणा भी ग्रहण की जा सकती है। स्वामी विवेकानंद के विचारों का प्रभाव इतना व्यापक था कि किसी भी विचारधारा का व्यक्ति हो, वो उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता था. उनके विचारों से बाल गंगाधर तिलक से लेकर महात्मा गाँधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस से लेकर पंडित जवाहरलाल नेहरू और बाबा साहब भीमराव आंबेडकर से लेकर वामपंथी नेता तक सब उनसे प्रभवित थे। यही कारण था कि विवेकानंद जी के स्मारक निर्माण के लिए समाजवादी नेता श्री राम मनोहर लोहिया, साम्यवादी नेता रेणु चक्रवर्ती द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (डीएमके) के संस्थापक और तमिलनाडु  के  प्रथम मुख्यमंत्री अन्नादुराई  ने  सहयोग भी दिया थाI स्वामीजी के विचारों का महत्व इससे भी समझा जा सकता है कि  एकबार गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था, ”आपको भारत को जानना है तो स्वामी विवेकानंद जी को पढ़िए उनमें सबकुछ सकारात्मक है, कुछ भी नकारात्मक नहीं। स्वामी विवेकानंद के विचारों के प्रभाव का सबसे बड़ा उदाहरण मार्गरेट एलिजाबेथ नोबलका भगिनी निवेदिता बन जाना है। मार्गरेट नोबेल नवम्बर, 1895 में स्वामी विवेकानंद से उनके एक व्याख्यान के दौरान मिली थीं।  मार्गरेट स्वामीजी के दार्शनिक ज्ञान, व्यक्तित्व और धर्म को अनुभूति के तौर पर देखने वाली चर्चा से प्रभावित हुईंI मार्गरेट आने वाले दिनों में उनके अनेक व्याख्यानों में सम्मलित होने लगीं और निरंतर अपनी जिज्ञासाओं के कारण प्रश्न भी करती रहती थींI तब वो स्वामीजी के विचारों से इतनी प्रभावित हुईं कि एक पत्र में उन्होंने अपने मित्र को लिखा – ”मानो यदि स्वामीजी उस समय लंदन में आते ही नहीं तो मेरा जीवन निष्प्राण पुतले जैसा होताI” स्वामीजी ने निवेदिता से भारत में आकर सेवा कार्य करने का आह्वान किया. उन्होंने पत्र में लिखा, ‘भारत के कार्य में आपका भविष्य उज्जवल है, ऐसा मुझे विश्वास हैI आवश्यकता है एक स्त्री की, पुरुष की नहीं I भारत की स्त्रियों के लिए कार्य करने वाली एक सिंह के सदॄश्य धैर्यवान स्त्री कीI अपनी विद्या, मन की शुद्धता और केल्टिक वंश से होने के कारण इस कार्य के लिए जैसी स्त्री की आवश्यकता है संयोग से तुम वैसी ही होI” वे भारत आईं और भारत आने के बाद 25 मार्च, 1898 को स्वामी विवेकानंद ने उनको ब्रह्मचर्य की दीक्षा और निवेदिता नाम दोनों दियाI                 

स्वामी विवेकानंद जब शिकागो के अंतर्राष्ट्रीय धर्म सम्मेलन में पहुँचे थे, तो भारत को लेकर विश्व का दृष्टिकोण पूर्वग्रहों पर आधारित था। इसी कारण स्वामीजी को एकदम अंत में बोलने का अवसर दिया गया। लेकिन इस उपेक्षा के कारण उनमें अपने भारतीय संस्कृति और दर्शन को लेकर कोई हीनताबोध नहीं विकसित हुआ, बल्कि जब उन्होंने बोलना शुरू किया तो वो वक्तव्य इतिहास की धरोहर बन गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि स्वामीजी के शब्दों में भारतीय सभ्यता, संस्कृति और दर्शन का सारगर्भित समावेश था। उनके स्वर में भारत की सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता का आत्मविश्वास था।  इसी आत्मविश्वास की जरूरत आज के युवाओं को भी है। उम्मीद कर सकते हैं कि ऐसा ही आत्मविश्वास, जेएनयू में स्थापित स्वामीजी की प्रतिमा विश्वविद्यालय परिसर के युवाओं में भी पैदा करेगी। संभव है कि यह जेएनयू में एक नए वैचारिक युग के आगाज की मजबूत आधारशिला भी बने।

बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

नवरात्र का संदेश

  • पीयूष द्विवेदी भारत

भारतीय सांस्कृतिक परम्परा का सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर विभिन्न संदर्भों में यह एक तथ्य समान रूप से स्पष्ट होता है कि हमारे मनीषी पूर्वजों ने भारतीय पर्वों-अनुष्ठानों के माध्यम से प्राणिमात्र के कल्याण के अनेक उद्देश्यों को साधने व उनसे सम्बंधित संदेश देने का प्रयास किया है। भारतीय पर्व कोई रूढ़ परम्परा नहीं हैं, अपितु इस राष्ट्र और समाज को समय-दर-समय उसके विभिन्न कर्तव्यों के प्रति सजग कराने वाले जीवंत संदेश हैं। नवरात्र भी इस विषय में अपवाद नहीं है।

यद्यपि कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी नवरात्र के संदर्भ में ऐसा कहते-लिखते दिख जाते हैं कि एक तरफ स्त्रियों से बलात्कार हो रहे और दूसरी तरफ कन्या-पूजन का दिखावा किया जा रहा। परन्तु, इस बात के पीछे केवल लच्छेदार भाषा ही नजर आती है, कोई ठोस तर्क नहीं दिखाई देता। क्योंकि यदि आज स्त्रियों के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं, तब तो नवरात्र की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। कारण कि शक्ति की आराधना का यह उत्सव, स्त्री के सम्मान और सुरक्षा की भावना का व्यापक अर्थों में संयोजन किए हुए है।  

दैनिक जागरण
दरअसल भारतीय संस्कृति सदैव से नारी के सम्मान और सुरक्षा की भावना से पुष्ट रही है। हमारे पौराणिक एवं महाकाव्यात्मक इतिहास के ग्रंथों में ऐसे अनेक प्रसंग एवं उदाहरण उपस्थित हैं, जिनसे इस कथन की पुष्टि होती है। एक प्रमुख उदाहरण यह है कि हमारे पुराण सृष्टि की आद्योपांत सम्पूर्ण व्यवस्था का संचालन करने वाले त्रिदेवों की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं, परन्तु, साथ ही यह भी बताते हैं कि अपनी शक्तियों के बिना त्रिदेव कुछ भी करने में असमर्थ हैं। इन्हीं त्रिदेवों की शक्तियां असुरों के विनाश के लिए विभिन्न रूप धारण करती हैं और उन्हीं रूपों की पूजा का अवसर नवरात्र होता है। शक्ति के उन रूपों की कल्पना कन्याओं में की जाती है, क्योंकि भारतीय परम्परा में नारी को देवी माना गया है। इस पृष्ठभूमि के बाद क्या अलग से यह बताने की आवश्यकता रह जाती है कि भारत में नारी का स्थान सम्मान को लेकर कैसी दृष्टि रही है। हमारे देश में अनुसूया, अरुंधती, गार्गी जैसी एक से बढ़कर एक तेजस्विनी और विद्वान् नारियों की भी परम्परा रही है।  लेकिन अब प्रश्न यह है कि आज क्यों समाज में नारियों के प्रति अपराध का बढ़ रहा है? ऐसा क्या हो गया कि कन्याओं का पूजन करने वाले समाज में लड़कियों के साथ अमानवीयता की घटनाएं दिखाई-सुनाई देने लगी हैं?

विचार करें तो यह स्थिति केवल आज के काल की ही नहीं है, अपितु हर काल में बहुसंख्यक अच्छे लोगों के बीच कुछ दुष्ट तत्व भी सक्रिय रहे हैं, जो नारी को अपना शिकार बनाते रहे हैं। प्राचीन कथाओं में भी ऐसे प्रसंग मिलते हैं कि असुर किस प्रकार स्त्रियों का अपहरण कर लेते थे, उनके साथ दुष्कर्म करते थे और उन्हें अपमानित किया जाता था। यहाँ तक की देवी द्वारा जिन असुरों का विनाश किया गया है, वे भी देवी के प्रति ऐसी ही कुत्सित भावना रखते थे। ऐसे में आज यदि नारी के प्रति अपराध बढ़ रहा है, तो इसका हर मोर्चे पर प्रतिकार करने की आवश्यकता है। कानूनी कठोरता एक मोर्चा है, लेकिन इससे पूरी तरह से इस अपराध को रोका नहीं जा सकता। अन्य मोर्चों पर भी काम करने की आवश्यकता है।

इस सम्बन्ध में वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि हर नारी  भीतर से देवी दुर्गा बने। जो सामान्यतः तो शांत रहती हैं और अपने स्नेही जनों के प्रति मातृभाव रखती हैं, परन्तु यदि कोई दुष्ट आ जाता है, तो उसका विनाश करने में भी सक्षम हैं। आज उसी प्रकार नारी को आत्मरक्षा के लिए तन और मन दोनों से तैयार होना होगा। यह समय देवी के उस रूप को पूजने के साथ-साथ आत्मसात करने का भी है। इसके लिए आवश्यक साहस और दृढ़ता जैसे गुण तो स्त्रियों में हैं ही और जिन क्षेत्रों में भी अवसर मिला है, स्त्रियाँ अपने इन गुणों को सिद्ध भी कर रही हैं। परन्तु, अब इसे हर स्त्री को अपनाना होगा।

यह ठीक है कि स्त्री की एक शृंगार-केन्द्रित छवि रही है, लेकिन अब श्रृंगार के साथ-साथ उन्हें शौर्य को भी धारण करना होगा। शौर्य और शृंगार कोई विरोधी तत्व नहीं हैं कि एकसाथ इन्हें साधा नहीं जा सकता। अतः नारी को इस दिशा में बढ़ना चाहिए क्योंकि यह समय की मांग है और शक्ति की आराधना का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भी यही है। सरकार को भी स्त्रियों को आत्मरक्षा के लिए तैयार करने हेतु कोई राष्ट्रव्यापी अभियान आरम्भ करे जिससे कि हर स्त्री के भीतर उपस्थित शक्ति को जागृत किया जा सके।

‘शक्ति’ के अतिरिक्त देवी का एक ‘माँ’ का भी रूप होता है। इस रूप में नारी अपनी संतान में संस्कार के ऐसे बीज यदि रोप सकें कि संसार का हर प्राणी सम्माननीय है, तो स्त्रियों के सम्मान और सुरक्षा से जुड़ी समस्याओं का शायद पूर्णतः समाधान हो सकता है। यह अपेक्षाएं स्त्रियों से इसलिए हैं क्योंकि आज के समय में वे ही ‘शक्ति’ की प्रतीक हैं। उनके बिना न केवल पुरुष अपितु पूरा समाज शक्तिहीन ही है। अतः समाज में जो विकृतियाँ हैं, उनका शमन करने के लिए उनके जुटे बिना बात नहीं बनेगी। यह देश अनेक वीरांगनाओं से भरा रहा है। उनकी प्रेरणा और संकल्पों ने परिवार और समाज को समय-समय पर ऊर्जा प्रदान की है। वर्तमान समय की उनसे कुछ यही अपेक्षा है।  

रहे पुरुष तो वे इतना ही संकल्प ले लें कि नवरात्र में जिस आदर-भाव से कन्याओं का पूजन करते हैं, वो भाव वर्ष के अन्य दिनों में भी जीवन में मिलने वाली हर स्त्री के प्रति मन में बनाए रखेंगे। स्त्रियों बाकी सब अर्जित करने में समर्थ हैं, पुरुष केवल उन्हें सम्मान दें, इतना ही पर्याप्त होगा।

सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

फिल्म सिटी की सफलता से जुड़े सवाल

  • पीयूष द्विवेदी भारत

गत दिनों उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने राज्य में विश्वस्तरीय फिल्म सिटी बनाने की घोषणा की थी और अब सरकार इस दिशा में तेजी से बढ़ती हुई भी नजर आ रही है। नोएडा में एक हजार एकड़ में यह फिल्म सिटी बननी निश्चित हुई है। प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वयं इस परियोजना में विशेष रुचि ले रहे हैं, जिसका अंदाजा इस सम्बन्ध में उनके द्वारा की गयी बैठकों से लगाया जा सकता है। अपने अधिकारियों के साथ तो वे बैठक कर ही रहे, पिछले दिनों फिल्म जगत के कई दिग्गज कलाकारों के साथ भी उन्होंने इस परियोजना को लेकर चर्चा बैठक की थी। फिल्म सिटी के लिए विश्वस्तरीय सलाहकार कंपनी का चयन करने के लिए निविदा जारी करने पर भी चर्चा चल रही है। ख़बरों के मुताबिक़, मुख्यमंत्री योगी चाहते हैं कि यथाशीघ्र इसकी औपचारिकताएं पूरी कर फिल्म सिटी के निर्माण का काम शुरू कर दिया जाए।

दरअसल यूपी में फिल्म सिटी बनाने की बात दो हजार के दशक से ही हो रही है। 1993 में यह बात उठी लेकिन हुआ कुछ नहीं। इसी प्रकार अखिलेश सरकार के कार्यकाल में भी फिल्म सिटी का विषय आया था, लेकिन कुछ भी ठोस रूप में आकार नहीं ले सका। राज्य की फिल्म नीति में फिल्म सिटी की घोषणा मिलती है। अब योगी सरकार की सक्रियता देखकर उम्मीद जगती है कि शायद अबकी यह घोषणा सिर्फ घोषणा बनकर ही न रहे। यूँ तो अभी यूपी में फिल्म सिटी का काम प्राथमिक चरण में ही है, लेकिन एकबार के लिए यदि मान लें कि सरकार की सक्रियता से राज्य में फिल्म सिटी बनकर खड़ी हो जाएगी तो भी ऐसी कई बातें हैं, जिनपर काम किए बिना फिल्म सिटी के बहुत सफल होने की संभावना नहीं है।

दैनिक जागरण
दरअसल किसी भी फिल्म के निर्माण अभिनेता-अभिनेत्री से बड़ी भूमिका परदे के पीछे काम करने वाले तकनीशियनों की होती है। अब उत्तर प्रदेश ने फिल्म जगत को कलाकार तो खूब दिए हैं और अब भी दे ही रहा है, लेकिन फिल्म निर्माण के अन्य पक्षों से सम्बंधित प्रतिभाएं राज्य में पर्याप्त विकसित नहीं हो पाई हैं। कारण कि यहाँ उसके लिए आवश्यक व्यवस्था ही नहीं है। फिल्म निर्माण में छायांकन, संपादन जैसी चीजें महत्वपूर्ण होती हैं। आज के समय में लगभग हर फिल्म के लिए वीएफएक्स का काम भी आवश्यक हो चुका है। उत्तर प्रदेश में फिल्म निर्माण की इन जरूरतों को लेकर अभी तक कोई ठोस तैयारी नजर नहीं आती। फिल्म निर्माण से सम्बंधित इन तकनीकी विषयों के शिक्षण-प्रशिक्षण की कोई पुख्ता व्यवस्था अभी राज्य में विकसित नहीं हो पाई है। ऐसे में, केवल फिल्म सिटी का ढांचा खड़ा हो जाने से फिल्म निर्माण के वातावरण का निर्मित होना संभव नहीं है

उत्तर प्रदेश में 1999 में फिल्म नीति की घोषणा की गयी थी, जिसमें वर्तमान सरकार ने हाल ही में कुछ संशोधन कर नयी नीति जारी की है। इस फिल्म नीति का उद्देश्य ‘उत्तर प्रदेश में फिल्म उद्योग के समग्र विकास हेतु एक सुसंगठित ढांचा और एवं उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराना’ निर्धारित किया गया है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राज्य सरकार ने ‘उप्र फिल्म बंधु’ का गठन किया है, जिसका दायित्व फिल्म-निर्माण के लिए उपयुक्त वातावरण सृजित कर, फिल्म संबधी गतिविधियों को बढ़ावा देकर प्रदेश को फिल्म निर्माण के हब के रुप में विकसित करना है। इसके अलावा नयी फिल्म नीति में राज्य में फिल्म प्रशिक्षण की व्यवस्था से लेकर स्टूडियो-लैब जैसी व्यवस्थाएं स्थापित करने की बात भी कही गयी है, लेकिन धरातल पर यह चीजें कब उतरेंगी, कहा नहीं जा सकता। फिलहाल होता केवल ये दिख रहा है कि कम बजट वाली फिल्मों के निर्माता यूपी में शूटिंग कर राज्य सरकार से सब्सिडी बटोरने में लगे हैं। इस साल की शुरुआत में ही फिल्म विकास परिषद और यूपी फिल्म बंधु द्वारा हिंदी-भोजपुरी की बाईस फिल्मों को ग्यारह करोड़ की सब्सिडी आवंटित की गयी है। फिल्म निर्माता-निर्देशक फिल्मों की कुछ शूटिंग यूपी में करते हैं, सब्सिडी लेते हैं और फिर ‘पोस्ट प्रोडक्शन’ का काम मुंबई में करवाने निकल जाते हैं, क्योंकि राज्य में इसके लिए जरूरी व्यवस्था अभी नहीं बन पाई है। ऐसे में राज्य को शूटिंग का कोई लाभ नहीं मिल पाता।  

उक्त तथ्यों से दो बातें साफ़ होती हैं। एक कि राज्य में फिल्म निर्माण के लिए जरूरी वातावरण अभी नहीं है और दूसरी कि इस वातावरण को तैयार करने से सम्बंधित लगभग सभी बातें राज्य की फिल्म नीति में सम्मिलित हैं। यानी कि यदि फिल्म नीति का समुचित क्रियान्वयन हो जाए तो उत्तर प्रदेश फिल्म निर्माण की भरपूर संभावनाओं से युक्त हो सकता है। फिल्म नीति के क्रियान्वयन का काम मुख्यमंत्री नहीं देख सकते। इसके लिए फिल्म विकास परिषद् की स्थापना की गयी है। लेकिन राज्य की फिल्म विकास परिषद् का अध्यक्ष पद राजनीतिक रेवड़ी के रूप में बंटता आया है। सपा सरकार में अमर सिंह के दबाव में जया प्रदा को इसका उपाध्यक्ष बनाया गया था। फिलहाल इसके अध्यक्ष स्टैंडअप कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव हैं। राजू उम्दा हास्य कलाकार हैं, लेकिन यह प्रतिभा उन्हें इस महत्वपूर्ण पद के लिए योग्य नहीं बनाती। जरूरत है कि इस पद पर फिल्म जगत की आवश्यकताओं की गंभीर समझ रखने वाले किसी अनुभवी व्यक्ति को होना चाहिए, ताकि राज्य की फिल्म नीति को सही ढंग से धरातल पर उतारने में यह परिषद् अपनी भूमिका का समुचित निर्वहन कर सके। अतः फिल्म सिटी निर्माण के समानांतर योगी सरकार को इन बिंदुओं पर भी काम करने की आवश्यकता है। ऐसा होने की स्थिति में, जबतक फिल्म सिटी बनकर तैयार होगी तबतक राज्य में फिल्म निर्माण के लिए जरूरी आधार और वातावरण भी तैयार हो चुका होगा। निश्चित रूप से इसका लाभ उत्तर प्रदेश को मिलेगा।

रविवार, 4 अक्तूबर 2020

पशुओं की भी है ये धरती

  • पीयूष द्विवेदी भारत

अपनी सुख-सुविधाओं के लिए प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करने में डूबे आदमी को अब यह अंदाजा ही नहीं रह गया है कि वो अपने साथ-साथ अन्य जीवों के लिए इस धरती के वातावरण को कितना मुश्किल बनाता जा रहा है। लगातार कटते पेड़ों से जानवरों का जीवन संकट में है। कितने ही पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं, तो कितनी लुप्त होने की ओर बढ़ रही हैं। ऐसी ‘विश्व पशु दिवस’ का महत्व और बढ़ जाता है।

दैनिक जागरण आईनेक्स्ट

हर साल पशुप्रेमी संत फ्रांसिस ऑफ़ एसीसी के जन्मदिन 4 अक्टूबर को दुनिया भर में यह दिवस मनाया जाता है। इसके पीछे जहाँ एक तरफ पशुओं की विभिन्न प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने और उनकी रक्षा करने की बात है, वहीं हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि हम पशुओं पर क्रूरता करने से बचें। इस दिवस का मूल उद्देश्य विलुप्त हुए प्राणियों की रक्षा करना और मानव से उनके संबंधों को मजबूत करना था। साथ ही पशुओं के कल्याण के सन्दर्भ विश्व पशु कल्याण दिवस का आयोजन करना है। ताकि उनके प्रति संवेदना स्थापित करने के साथ-साथ पशुओं की हत्या और क्रूरता पर रोक लगायी जा सके।  विश्व के सभी देशों में अलग-अलग तरह से इस दिवस को मनाया जाता है। जन जागरण और जन शिक्षण के माध्यम से पशुओं को संवेदनशील प्राणी का दरजा देने के लिए समाज के सभी वर्गों का योगदान आवश्यक है। यह दुनिया मनुष्य के साथ-साथ जानवरों के लिए भी एक बेहतर स्थान बन सके, यह इस दिवस का मूल भाव है।

इस दिवस को पहली बार 24 मार्च, 1925 को जर्मन लेखक हेनरिक जिमर्मन द्वारा मनाया गया था। हालांकि तब भी इसको मनाने का विचार 4 अक्टूबर को ही था, लेकिन इस तारीख को आयोजन के लिए निर्धारित स्थल खाली नहीं था, इसलिए इसे मार्च में मना दिया गया। परन्तु, फिर बाद में 4 अक्टूबर, 1931 को इसे इटली में आयोजित विज्ञानशास्त्रियों के सम्मलेन में मनाया गया।

विचार करें कि आज हम पशु कल्याण दिवस तो मना रहे, लेकिन क्या उससे दुनिया में जानवरों के प्रति लोगों की सोच में कोई बदलाव आया है, तो स्थिति बहुत अच्छी नहीं दिखाई देती। स्थिति ये है कि आज भी ज्यादातर आदमी जानवरों को महत्व केवल तभी देते हैं, जब वे उनके किसी स्वार्थ या सुख से सम्बन्ध रखते हों। जैसे कि बहुत से लोगों को कुत्ते-बिल्ली पालने का शौक होता है, तो वे उन्हें पकड़कर बाँध के रख लेते हैं और उनसे अपना मनोरंजन करते हैं। कुछ लोग कुत्ते से घर की रखवाली का शौक रखते हैं, क्योंकि वो वफादार होता है। इसी तरह कुछ लोग सरपट भागने वाले खरगोश को भी पालतू बनाकर चारदीवारी में कैद कर लेते हैं। गाय पालते हैं, क्योंकि उससे दूध मिलता है। घोडा-हाथी लोगों को इसलिए प्रिय है कि वे आवागमन के काम में आते हैं। यह आदमी का पाखण्ड नहीं तो और क्या है कि पहले उसने अपने स्वार्थ के लिए पेड़ काट-काटकर जानवरों के जंगल छीन लिए और अब उन्हें अपने घर के एक कोने में बांधकर रखते हुए वो खुद को पशुप्रेमी साबित करने में लगा रहता है।

कुछ जानवर तो आदमी के लिए केवल उसके स्वाद की वस्तु हैं। चिकन से लेकर मीट और बीफ तक असंख्य जानवरों को सिर्फ इसलिए मार दिया जाता है कि ताकि कुछ लोगों के खाने में स्वाद आ सके। आज दुनिया के अधिकांश देशों में मीट एक उद्योग के रूप में फल-फूल रहा है और इसके व्यापार से वहाँ की सरकारों का खजाना भरता है। आज प्रतिवर्ष दुनिया में लगभग 320 मिलियन टन मीट का उत्पादन होता है और इसकी खपत भी हो जाती है। तकरीबन 80 बिलियन जानवरों को प्रतिवर्ष मांस प्राप्त करने के उद्देश्य से मार दिया जाता है। इनमें सबसे बड़ी तादाद मुर्गों की है। लेकिन ये करने के बाद भी सब देश पशुप्रेमी होने का दावा करने से नहीं चूकते। इस काम के पक्ष में माँसाहारी लोगों के पास दलीलें भी खूब होती हैं। वे कहते हैं कि यदि इस तरह जानवरों को नहीं मारा जाएगा तो धरती का संतुलन बिगड़ जाएगा और हर तरफ जानवर ही जानवर फ़ैल जाएंगे। इस तर्क के हिसाब से चलें तब तो जहां मनुष्य की आबादी बहुत ज्यादा हो रही है, वहां उन्हें भी मारना शुरू कर देना चाहिए। लेकिन यह कोई तरीका नहीं होता। इन तथ्यों का निष्कर्ष यही है कि दुनिया का पशुप्रेम दिखावा ही अधिक है, उसमें वास्तविकता बहुत कम है।

इस संदर्भ में भारत की बात करें तो पशुपालन भारतीय अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण क्षेत्र है। सत्रहवीं पशु गणना की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के कुल भैसों का 57 प्रतिशत और गाय-बैलों का लगभग 14 प्रतिशत भारत में है। कृषि और मवेशी गतिविधियों के अंतर्गत इनका पूरा उपयोग भी होता है। गाय को देश में माँ समान मानकर पूजा जाता है।  लेकिन साथ ही साथ देश में इस तरह के पशुओं का उपयोग न होने की स्थिति में उन्हें छुट्टा छोड़ देने की समस्या भी खूब है। अब ट्रैक्टर आ जाने से बैल की उपयोगिता कम हो गयी है, तो अक्सर लोग उन्हें खुले में छोड़ देते हैं। दूध देना बंद कर देने पर गाय-भैंस जैसे पशुओं को छोड़ दिया जाता है। ऐसी स्थिति में ये पशु बिना किसी व्यवस्था के इधर-उधर फिरते हैं और सड़क पर पड़े कूड़े के ढेर में अपने लिए भोजन तलाशने को विवश होते हैं। यह नहीं हुआ तो लोग इन्हें बूचड़खाने को बेच देते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि गाय को पूजने वाले इस देश में गोवंश की देखरेख की कोई बेहतर व्यवस्था अभी नहीं बन पाई है और इन पशुओं के प्रति भी मानव का व्यवहार अपने स्वार्थों पर ही आधारित है।

हालांकि इससे इतर भारत में पशु संरक्षण के लिए कई मोर्चों पर प्रयास भी होते रहे हैं, जिसमें कुछ मोर्चों पर सफलता भी मिली है। जैसे कि बाघ संरक्षण के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों से उनके संरक्षण में सफलता मिली है। बाघ संरक्षण के लिये किये जा रहे प्रयासों के परिणामस्वरूप बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय स्तर पर हर चार वर्ष बाद आधुनिक तरीकों से बाघों की संख्या की गिनती की जाती है। बाघ रेंज के देशों ने 2010 में सेंट पीटर्सबर्ग में घोषणा के दौरान 2022 तक अपनी-अपनी रेंज में बाघों की संख्या दोगुनी करने का संकल्प व्यक्त किया था। सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित इस चर्चा के समय भारत में 1411 बाघ होने का अनुमान था जो कि ‘अखिल भारतीय बाघ अनुमान 2014’ के तीसरे चक्र के बाद दोगुना होकर 2226 हो गया। अभी इस वर्ष पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावेड़कर द्वारा बाघों पर "स्टेटस ऑफ़ टाइगर्स - कोप्रिडेटर्स एंड प्रेय इन इंडिया" नामक रिपोर्ट जारी करते हुए जानकारी दी गयी कि 2014 से 2018 के बीच देश में बाघों की संख्या 2226 से बढ़कर 2967 तक पहुंच गयी है। स्पष्ट है कि बाघ संरक्षण में देश को बहुत हद तक सफलता मिली है। बाघ प्रोजेक्ट की तरह ही देश ने अलग-अलग समय पर हाथी, गैंडा, घड़ियाल, गिद्ध, डॉलफिन, बर्फीले तेंदुआ, सोहन चिड़िया, लाल पांडा आदि अनेक जीवों के संरक्षण के लिए कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं। इनमें से कुछ में लक्ष्यों को हासिल करने में सफलता भी मिली है। लेकिन आज हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि किसी भी पशु के अस्तित्व पर ऐसा संकट आए ही नहीं कि उसके संरक्षण की आवश्यकता उपस्थित हो। यह तभी होगा जब मनुष्य जाति अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर पशु कल्याण की दृष्टि को अपनाएगी। भारतीय संस्कृति में जीव मात्र के कल्याण की भावना रही है। हमें इस भावना को अपने आचरण में उतारते हुए मन से यह बात स्वीकारने की आवश्यकता है कि ये धरती पशुओं की भी उतनी ही है जितनी मनुष्यों की। यह बात अगर हम समझ सकें तो ही विश्व पशु दिवस के आयोजन की कोई सार्थकता होगी।

शनिवार, 26 सितंबर 2020

स्वरोजगार अपनाएं युवा

  • पीयूष द्विवेदी भारत

कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया में लोगों के जीवन को प्रभावित किया है। इसका सबसे बुरा प्रभाव रोजगार की स्थिति पर पड़ा है। भारत की बात करें तो यहाँ बेरोजगारी की समस्या पहले से ही बड़ी थी, जो कि इस महामारी के बाद और बड़ी हो गयी है। सोशल मीडिया पर युवा रोजगार को लेकर सरकार पर सवाल उठाने में लगे हैं। इसके तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन के रोज ट्विटर पर ‘बेरोजगारी दिवस’ ट्रेंड करवाया गया। उनकी ‘मन की बात’ कार्यक्रम के वीडियो को डिसलाइक करने का अभियान भी चला। हालांकि इन सब कवायदों के पीछे विपक्षी दलों की भूमिका होने की संभावना मानी जा रही है, लेकिन तब भी देश में बेरोजगारी की समस्या से इनकार नहीं किया जा सकता।

गौर करें तो सोशल मीडिया पर बेरोजगारी का विषय उठाने वाले अधिकांश युवाओं का मुद्दा सरकारी भर्तियों में होने वाली अनियमितता और देरी है। अच्छी बात ये है कि युवाओं की मांग पर ध्यान देते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश में खाली पड़े पदों पर अगले छः महीने के भीतर भर्ती प्रक्रिया पूरी कर लेने का निर्देश संबधित अधिकारियों को दे दिया है। उम्मीद है कि इसके बाद बिना किसी विघ्न-बाधा के प्रदेश में सभी खाली पद भर लिए जाएंगे। ऐसी पहल अन्य राज्यों की सरकारों को भी करनी चाहिए।

हरिभूमि
सरकारी भर्तियाँ सही समय पर और सही तरीके से हों, यह तो ठीक है। लेकिन प्रश्न ये है कि क्या सरकारी भर्तियों के द्वारा इतने बड़े देश के लोगों को रोजगार दिया जा सकता है? इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि क्या सरकार सबको थाली में सजाकर नौकरी देने में सक्षम है? इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय होगा कि 2018 में संसद में प्रस्तुत एक आंकड़े के मुताबिक़, देश के सरकारी क्षेत्र में लगभग 24 लाख नौकरियों के पद खाली हैं। अब पहली चीज तो ये कि आज के समय में जब सब चीजें तकनीक आधारित होती जा रही हैं, तब इन सभी पदों पर भर्ती हो, यही आवश्यक नहीं है। इनमें बहुत-से पद ऐसे होंगे, जिनकी उपयोगिता तकनीक के आगमन के साथ ही कम हो चुकी होगी। अतः उनपर सरकार का ध्यान न देना स्वाभाविक है। इसके अलावा बहुत बार ऐसा भी होता है कि भर्ती निकलने पर पर्याप्त योग्य उम्मीदवार न मिलने के कारण भी बहुत-से पद खाली रह जाते हैं। लेकिन इन सबके बावजूद एकबार के लिए मान लेते हैं कि सरकारें युद्धस्तर पर लग जाएं, सब परिस्थितियां भी एकदम अनुकूल रहें और ये सब पद भर दिए जाएं, लेकिन क्या इससे देश में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या को कोई बहुत अधिक फर्क पड़ेगा ? कहना गलत नहीं होगा कि यह भर्तियाँ करोड़ों की बेरोजगारी वाले इस देश में ऊँट के मुंह में जीरे जैसी ही होंगी।

अब प्रश्न यह उठता है कि फिर देश में बेरोजगारी की समस्या का समाधान क्या है और उस दिशा में सरकार क्या प्रयास कर रही है ? भारत जैसे देश में बेरोजगारी खत्म करने का एकमात्र उपाय स्वरोजगार है, जिसकी बात वर्तमान केंद्र सरकार अपने पहले कार्यकाल से कर रही है। न केवल बात कर रही है, बल्कि स्वरोजगार को प्रोत्साहन देने के लिए अनेक प्रकार के कदम भी उठाए हैं। इस दिशा में मुद्रा योजना, स्टार्टअप इंडिया, स्किल इंडिया जैसी योजनाओं के जरिये सरकार काम कर रही है। इनमें मुद्रा योजना बहुत महत्वपूर्ण है।

वर्ष 2015 में अपने पहले कार्यकाल के आरम्भ में ही मोदी सरकार ‘मुद्रा लोन’ नामक योजना लेकर आई। इस योजना के तहत अपना काम-धंधा शुरू करने के लिए लोगों को आसानी से कर्ज उपलब्ध करवाने की व्यवस्था की गयी है। इसमें पचास हजार से लेकर दस लाख तक का कर्ज आसानी से मिल सकता है। अबतक इस योजना के तहत पच्चीस करोड़ से अधिक लोगों को कर्ज दिए जा चुके हैं। लेकिन समस्या ये है कि यह कर्ज असंगठित क्षेत्र के रोजगार के लिए दिए गए हैं, जिस कारण इनके द्वारा कितने लोगों को रोजगार मिला इसका कोई पक्का आंकड़ा सरकार के पास मौजूद नहीं है। लेकिन एकबार के लिए यदि बड़ा ‘मार्जिन ऑफ़ एरर’ रखते हुए हम मान लें कि इन कर्ज लेने वालों में से आधे लोग भी अपना स्वरोजगार जमाने में कामयाब रहे होंगे तो भी इस योजना के द्वारा मिले रोजगार की संख्या बहुत बड़ी हो जाती है। क्योंकि यदि कोई आदमी इस योजना से कर्ज लेकर सैलून खोलता है या कोई औरत अपना ब्यूटी पार्लर खोलती है, तो केवल उनके लिए ही रोजगार का रास्ता नहीं खुलता बल्कि धंधा जम जाने पर वे अपने सहयोगी भी रखते हैं और इस तरह रोजगार की ये श्रृंखला लम्बी होती जाती है। अतः मुद्रा योजना के द्वारा सरकार ने रोजगार की दिशा में बड़ा कदम उठाया है, लेकिन इसका लाभ लेने के लिए लोगों को ‘नौकरी ही रोजगार है’ और ‘छोटा काम’ जैसी संकीर्ण मानसिकताओं को छोड़ अपनी क्षमता और हुनर के अनुरूप स्वरोजगार की दिशा में बढ़ने की जरूरत है। वस्तुतः स्वरोजगार ही वो रास्ता है, जो न केवल भारत की बेरोजगारी की समस्या को खत्म कर सकता है, बल्कि देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में भी आगे ले जा सकता है।

गुरुवार, 17 सितंबर 2020

आत्मनिर्भर भारत ही है चीन का जवाब

  • पीयूष द्विवेदी भारत

विश्व को कोविड-19 जैसी महामारी में झोंक देने के बाद भी चीन की शैतानियों पर कोई लगाम लगती नहीं दिख रही। अब खुलासा हुआ है कि चीन की सेना से संबधित झेन्हुआ डाटा इंफॉरमेशन टेक्‍नॉलजी नामक कंपनी दुनिया भर के अति महत्वपूर्ण चौबीस लाख लोगों की जासूसी कर रही थी। इनमें भारत, आस्ट्रेलिया और अमेरिका के बहुत ही महत्वपूर्ण लोगों की जासूसी शामिल है। भारत की बात करें तो यहाँ के दस हजार लोगों व संगठनों की जासूसी इस कम्पनी ने की थी, जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी, पूर्व व वर्तमान के 40 मुख्यमंत्री, 350 सांसद, कानून निर्माता, विधायक, मेयर, सरपंच और सेना से जुड़े करीब 1350 लोग शामिल हैं। देश की रीति-नीति और रक्षा के शीर्ष पर मौजूद इन लोगों की एक शत्रु राष्ट्र द्वारा जासूसी की बात किसी भी देशवासी को हिला देने के लिए काफी है। यह चिंता इसलिए और अधिक हो जाती है कि ये चीनी कंपनी वहाँ की सेना के लिए काम करती है। इस जासूसी के दौरान लोगों की जन्‍मतिथि, पते, वैवाहिक स्थिति, फोटो, राजनीतिक जुड़ाव, रिश्‍तेदार और सोशल मीडिया आईडी आदि शामिल हैं। हालांकि प्राप्त जानकारी के मुताबिक़, इनमें से ज्यादातर लोगों की सूचनाएं ट्विटर, फेसबुक, लिंक्डइन, इंस्‍टाग्राम और टिकटॉक अकाउंट जैसे ओपन सोर्स ली गयी थीं, लेकिन कुछ लोगों के बैंक खातो तक की भी कंपनी ने जासूसी की है।

दैनिक जागरण आईनेक्स्ट

दरअसल आज के इस तकनीक प्रधान युग में जब इंटरनेट के विविध माध्यमों पर लोगों की सक्रियता बढ़ती जा रही है, उसने डाटा की सुरक्षा को लेकर चिंता बढ़ाई है। यह चिंता इसलिए और अधिक हो जाती है, क्योंकि स्मार्टफोन और एपों के बाजार में चीन का भारी वर्चस्व है। भारतीय एप बाजार में चीनी एपों का चालीस प्रतिशत कब्जा है, जिसमें अबतक साल दर साल वृद्धि ही होती आई थी। लेकिन पिछले दिनों सीमा पर चीन से हुई तनातनी के कारण भारत सरकार द्वारा द्वारा चीन के 177 (पहले 59 फिर 118) एपों को देश में प्रतिबंधित कर दिया गया। इन एपों पर प्रतिबन्ध लगाते हुए सरकार ने तब सुरक्षा कारणों का हवाला दिया था। आज जब यह जासूसी काण्ड सामने आया है, तो उसने सरकार की आशंका को प्रमाणित कर दिया है। हालांकि इस जासूसी में ज्यादातर जानकारियाँ फेसबुक, इन्स्टाग्राम, ट्विटर, लिंक्डइन वगैरह ओपन सोर्स से ही ली गयी हैं, लेकिन तब भी चीन का जो चरित्र है, उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि वो अपने अन्य एपों का जासूसी के लिए इस्तेमाल नहीं करता होगा। समग्रतः चीन का किसी भी स्थिति में भरोसा नहीं किया जा सकता। सैन्य मोर्चे पर चीन का विश्वासघाती व्यवहार 1962 से चला आ रहा है, जिसका हालिया उदाहरण अभी लद्दाख में भी सामने आया था। अतः अन्य मोर्चों पर उससे सावधान रहने की आवश्यकता है। चीनी एपों पर प्रतिबंध इस दिशा में एक अच्छा कदम है, जिसे धीरे-धीरे उस स्तर पर ले जाने की आवश्यकता है कि देश में चीन का कोई एप न रह जाए। ऐसा होने से हम डाटा की जासूसी जैसे संकटों से तो बचेंगे ही, चीन को आर्थिक रूप से भी गहरी चोट पहुंचेगी

सैन्य मोर्चे पर चीन का जवाब देने में हमारी सेना सक्षम है, लेकिन मौजूदा हालात में इस तरह के किसी बड़े टकराव की संभावना न के बराबर है। आज लड़ाई की जमीन आर्थिक हो चुकी है और चीन अपने उत्पादों से भारतीय बाजारों पर कब्जा जमाकर इस दिशा में बढ़त बनाए हुए है। आज देश में इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों से लेकर बच्चों के खिलौनों तक के मामले में चीनी कंपनियों का वर्चस्व है। एप और गेमिंग के बाजार में भी चीन ने अपनी धाक जमा रखी है। जबतक देश से चीन का यह आर्थिक वर्चस्व समाप्त नहीं होता, भारत के लिए उससे पार पाना आसान नहीं होगा।

देश में एक वर्ग चीनी उत्पादों के बहिष्कार को इस समस्या के समाधान के रूप में देखता है और इसे लेकर लगातार माहौल बनाने की कोशिश भी होती है। ऐसे बहिष्कार अभियानों का तबतक कोई लाभ नहीं है, जबतक कि देश में चीनी उत्पादों का विकल्प तैयार करने की दिशा में काम नहीं किया जाता। इसी स्थिति को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीस लाख करोड़ के पैकेज के साथ आत्मनिर्भर भारत अभियान की शुरुआत की है। 

यदि चीनी उत्पादों का बेहतर भारतीय विकल्प तैयार करने लगते हैं,  तो न तो उनपर प्रतिबन्ध लगाने की जरूरत रहेगी और न ही बहिष्कार करने की। लोग स्वतः उन्हें छोड़ देशी उत्पादों का रुख करने लगेंगे। सरकार ने अपने स्तर पर आत्मनिर्भर भारत की ओर कदम बढ़ाकर दृढ़ इच्छशक्ति का परिचय दे दिया है और अपनी मंशा भी स्पष्ट कर दी, अब देश के नागरिकों का दायित्व है कि वे आत्मनिर्भरता के इस अभियान को अपने कंधों पर आगे बढ़ाएं। सरकार और नागरिकों के संयुक्त प्रयास से ही आत्मनिर्भर भारत का स्वप्न साकार होगा और यह आत्मनिर्भरता ही चीन का जवाब होगी।